यूपी और बिहार में यादवों की सियासत
डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
भारत के उत्तर प्रदेश और बिहार ऐसे राज्य हैं जो यादवों की राजनीतिक वंश परंपरा के लिए जाने जाते हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के उत्तराधिकारी अखिलेश यादव राज्य के मुख्यमंत्री रहे लेकिन अब सत्ता विहीन होने के बाद रसूख के हिसाब से सत्ताधारी दल भाजपा के बाद दूसरी पायदान पर हैं। वहीं बिहार में लालू यादव की अपनी सल्तनत रही उनकी राजनीतिक धमक भी किसी से छिपी नहीं है। उनके रसूख और राजनीतिक अहमियत को कौन नहीं जानता। वे राज्य के मुख्यमंत्री ही नहीं रहे बल्कि केंद्र में रेल मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में बेहद चर्चित रहे। उनका ठेठ बिहारी गंवई अंदाज हास्य की फुलझडियां छोड़ने में अब्बल रहा। चारा घोटाले के दोषी बनने के बाद उनके वर्चस्व में कमी आई है। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव को दल का सिरमौर बनाकर अपनी बीमारी के बावजूद दल की लगाम अपने हाथों में ही रखी है। वह अपने दोनों बेटों में तेजस्वी यादव को राजनीति में चतुर खिलाड़ी मानते हैं यही कारण है की वीटो पावर को छोड़ दें तो लालू ने दल के सारे अधिकार तेजस्वी को सौंप दिए हैं। इन दोनों राजनीतिक दलों सपा और राजद
में मुस्लिम और यादव वर्ग की बड़ी भूमिका और योगदान है। जहां उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के जमाने से ही एम वाय फैक्टर अर्थात मुस्लिम और यादवों की जुगलबंदी का वर्चस्व रहा वहीं बिहार में मुसलमानों का राजद के लिए भी कम योगदान नहीं रहा। लालू यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार में यादवों के साथ मुसलमानों की दबंगई चरम पर थी। लेकिन बिहार में यह वर्ग कभी लालू के साथ तो कभी नीतीश के साथ शिफ्ट होता रहा। ये दोनों नेता हर स्तर पर मुस्लिम वर्ग को अपने साथ बनाए रखने के लिए जी तोड़ मेहनत करते आज भी देखे जा सकते हैं। मुलायम और लालू के राजनीतिक परिवारों की तुलना करना इस आलेख का उद्देश्य नहीं है किंतु हाल की घटनाओं ने इन दोनों राज्यों के बारे में एक साथ लिखने को प्रेरित किया क्योंकि इस सप्ताह में दोनों राज्यों से जुड़ी दो घटनाएं विशेष चर्चा में हैं।
उत्तर प्रदेश में इटावा के दादपुर गांव में भागवत कथा करने आए मुकुटमणि यादव और उनके साथी संत सिंह यादव तब मुसीबत में फंस गए जब उन्होंने अपनी जाति की गलत जानकारी दी। परिणाम स्वरुप गांव वालों ने उन्हें मारा पीटा, बाल मुंडवाए तथा चोटी काट दी। यही नहीं कथावाचक पर आरोप है कि उन्होंने एक महिला से छेड़छाड़ भी की। निश्चित ही कथा वाचक को अपनी जाति छुपाने की जरूरत नहीं थी तो वही ग्रामीणों को कानून हाथ में लेने की जरूरत भी नहीं थी। किंतु यह घटना उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हो और जिसमें पीड़ित यादव जाति के हों तो फिर सियासत तो होना ही थी। इस घटना से राजनीतिक लाभ उठाने के लिए अखिलेश यादव का मैदान में कूदना 2027 के चुनाव के मद्देनजर लाजिमी ही था। वैसे पिछले 8 सालों से सत्ता विहीन होने के कारण अखिलेश ऐसे मुद्दों की तलाश में रहते हैं जो उन्हें राजनीतिक लाभ दिला सके। यह मुद्दा तो उन्हें बैठे-बैठाए हाथ लग गया। एक ओर जहां मामला लॉ एंड ऑर्डर का था तो दूसरा पीड़ित यादव जाति के कथावाचक का। यही कारण था कि अखिलेश यादव को लगा कि की योगी सरकार को इस मुद्दे पर घेरा जा सकता है। यहीं से भागवत कथा कांड एक सियासी मुद्दा बन गया। अखिलेश ने कहा लोग उत्तर प्रदेश का अमन चैन बिगाड़ रहे हैं। सोशल मीडिया एक्स पर उन्होंने लिखा भाजपा अपने सेट किए प्लांटेड लोगों के उपनाम का दुरुपयोग कर उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्यों से लोगों को लाकर समाज को बांटने वाली जो घुसपैठीया राजनीति प्रदेश में कर रही है उसका सच बच्चा-बच्चा जानता है। उत्तर प्रदेश का समाज कुछ नकारात्मक लोगों की गलतियों से बंटेगा नहीं बल्कि और मजबूत होगा। भाजपा उत्तर प्रदेश में बाहर से लाकर षड्यंत्र की बिसात बिछा रही है। जो भी हो उनकी पोस्ट का लब्बोलुआब योगी और बीजेपी को घेरना था जो उनका अधिकार है। लेकिन वे भूल गए कि जो आरोप वे भाजपा पर लगा रहे हैं कि ये षडयंत्र कर रहे हैं वे ही आरोप सपा पर भी लग रहे हैं। कहा जा रहा है कि जानबूझ कर समाज को बांटने की राजनीति का सपा का तो लंबा इतिहास रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो एम वाय जैसा फैक्टर नहीं बनता या 2024 के लोकसभा चुनाव में पी डी ए नहीं बनता। यही नहीं चूंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में यादवों के एक बड़े वर्ग का सपा से मोह भंग हुआ है जिसने सपा की लुटिया डुबाई उसे अपने साथ करने के लिए अखिलेश ने इस मुद्दे को बढ़ा चढ़ा कर प्रचारित किया है। कथा वाचक मुकुटमणि यादव का सम्मान कर अखिलेश ने यादवों को एक संदेश देने का काम किया है। निश्चित ही विपक्ष की राजनीति करने वालों के लिए यह मुनासिब है। लेकिन अखिलेश यादव एक गलती कर बैठे उन्होंने कहा लोग छोटे-मोटे कथावाचकों को इसलिए कथा करने बुलाते हैं कि वे अधिक खर्च नहीं उठा सकते। लेकिन हमारे यहां तो बाबा बागेश्वर धीरेंद्र शास्त्री जैसे कथा वाचक भी हैं जो टेबल के नीचे से 50 लाख रुपए लेते हैं। इस पर पंडित धीरेंद्र शास्त्री बाबा बागेश्वर ने बड़े सधे शब्दों में कहा कि जिस तरह लोग शुगर, हाई ब्लड प्रेशर का टेस्ट करवाते हैं अखिलेश को भी अपना डीएनए टेस्ट करवाना चाहिए। वस्तुत: अखिलेश ने कथा कांड में बाबा बागेश्वर को घसीट कर अपने लिए मुसीबत मोल ली मानी जाएगी। हालांकि यूपी में चुनाव को अभी दो साल हैं लेकिन बाबा से पंगा लेकर उन्होंने परोक्ष रूप से बिहार में तेजस्वी की परेशानी बढ़ा दी।अभी हाल ही में इटावा में एक और कथावाचक पंकज उपाध्याय की पिटाई का मामला भी सामने आने के बाद क्या यह नहीं माना जाए कि राज्य के माहौल को बिगाड़ने और जाति संघर्ष को बढ़ाने के लिए कोई ना कोई जानबूझकर घटनाओं को प्लांट करवा रहा है। इससे योगी सरकार किस तरह निपटेगी यह देखने वाली बात होगी। देखना होगा कि ये मामले कितनी दूर तक और कब तक चर्चा में बने रहते हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि ये बिहार विधानसभा चुनावों में सभा मंचों की विषयवस्तु बनें। लेकिन इतना तो तय है कि आज की स्थिति में पंडित धीरेंद्र शास्त्री को छेड़कर अखिलेश ने अपना ही नहीं तेजस्वी का भी नुकसान किया है क्योंकि धीरेंद्र शास्त्री का विरोध एक बड़े हिंदू वर्ग के लिए नागवार गुजर सकता है जिसका असर तात्कालिक और दूरगामी दोनों ही होंगे।
बिहार की राजनीति भी पिछले सप्ताह से आग उगल रही है। आगामी बिहार विधानसभा चुनावों को लेकर पक्ष विपक्ष में तल्ख तकरार दिखाई देने लगी है। वक्फ कानून और संविधान बचाओ के साथ-साथ वोटरों के ध्रुवीकरण की कोशिश चरम पर है। जहां एक ओर राजद मुस्लिम मतदाताओं का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करते हुए दिखाई दे रही है तो भाजपा इसके विपरीत हिंदूवादी राजनीति को परवान चढ़ा रही है। 29 जून को एक आमसभा में तेजस्वी यादव ने कहा यदि उनकी सरकार बनी तो वह केंद्र द्वारा लाए गए वक्फ कानून को कूड़ेदान में फेंक देंगे। वे बिहार में इसे लागू नहीं होने देंगे। यह बात उन्होंने पटना के गांधी मैदान में आयोजित वक्फ बचाओ संविधान बचाओ रैली को संबोधित करते हुए कही। वस्तुत: ये दोनों ही बातें उसी संविधान से जुड़ी हैं जिसे बचाने का एजेंडा विपक्ष सेट करना चाहता है। यह जानते हुए भी कि केंद्रीय कानून को राज्य सरकार मानने के लिए वैधानिक तौर पर बाध्य है और राज्य केंद्र द्वारा बनाए कानून को बदल नहीं सकता, केवल मुस्लिम वोटों को अपने पाले में लाने के लिए तेजस्वी ने ओजस्वी अंदाज में यह बात कही। इस पर भाजपा के गौरव भाटिया ने तंज कसते हुए कहा बिहार में जो लोग स्वयं को समाजवादी कहते हैं उनका असली चेहरा नमाजवादी है। यह लोग बाबा साहब के संविधान को नहीं चाहते ना उसका सम्मान करते। ये केवल सरिया कानून चाहते हैं। ये केवल एक समुदाय को शक्तिशाली बनाना चाहते हैं। स्वाभाविक है तेजस्वी ने अगर मुस्लिम वोटों को साधने का प्रयत्न किया तो गौरव भाटिया ने हिंदू वोटो को साधने का प्रयत्न किया। भाजपा संसद सुधांशु त्रिवेदी ने कहा राजग और सपा नमाजवाद के साथ खड़े हैं जबकि जेडीयू और भाजपा समाजवाद के साथ। भारत की राजनीति में विपक्ष लगातार मुस्लिम तुष्टिकरण कर रहा है जिसका लाभ उसे मिले या ना मिले भाजपा को हिंदू वोटरों का समर्थन स्वत: मिल जाता है। ऐसे में इन दोनों प्रकरणों में योगी आदित्यनाथ का कहना ज्यादा प्रभावी हो जाता है जो कहते हैं बटोगे तो कटोगे।