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आनंद एकमेव है, उसमें सुख और दुःख का विभाजन नहीं होता है

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भौतिक जीवन रोलर कोस्टर राइड की भांति होता है जहां उतार-चढ़ाव से प्रतिपल सामना होता रहता है। सुख व दुख से मानव व्यथित होता रहता है। वास्तव में अभाव हमारे दुख का मुख्य कारण है,जो कुछ भी मर्त्य है वो अपूर्ण है। इसी कारण इस जगत की कोई भी चीज हमें संतुष्टि प्रदान नहीं कर पाती तथा अनेक प्रकार की लालसाएं सदैव ही हमें भ्रमित करती रहती हैं। इसी संदर्भ में सहजयोग संस्थापिका श्री माताजी निर्मला देवी जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है कि,
सुख और दुःख एक ही साथ चलते हैं, आज कोई आदमी सुख पे चढ़ा फिर दु:ख में उतरा, आशा निराशा के इस झमेले में ही मनुष्य पड़ा रहता है लेकिन आनंद एकमेव होता है, उसमें सुख और दुःख का विभाजन नहीं होता है, आनंद में मनुष्य शांत चित्त होकर के सारी चीज को देखता है जैसे कोई खेल हो, जैसे कोई नाटक हो रहा हो, सब चीज को देखता है और कोई चीज भीषण भी लगती है उसे भी वो देखता है और कारण कि वो देख सकता है साक्षी भाव से, वो उसे ठीक भी कर सकता है क्योंकि वो एक महान आत्मा है। (13 अक्टूबर 1986 कोलकाता)
“जीवन जैसा है, इसे इसी रूप में स्वीकार करें । वहां जैसा जीवन है, इसे स्वीकार करें। प्रतिकार न करें, क्रोधित न हों, निराश न हों, बस इसे स्वीकार करें, और आप उसी जीवन का आनंद लेने लग जाएंगे, जो जीवन आपको परेशान कर रहा था। आप इस जीवन का आनंददायी पहलू देखेंगे, और यह इतना सुंदर होगा कि इस तरह से इसे देखकर आप अपनी सारी समस्याओं पर विजय पा लेंगे। आप अपने सभी शत्रुओं पर विजय पा लेंगे, और आपको एक तरह का अत्यंत सुन्दर व ताज़ा जीवन मिलेगा।” (9 मई 1999)
सहजयोग में कुंडलिनी जागरण के पश्चात् साक्षी स्वरूप होना तथा निर्मल आनंद को प्राप्त करना अत्यंत ही सहज रूप में हो जाता है। मां के समक्ष आत्मसाक्षात्कार की यह जटिल प्रक्रिया सरल रूप में तत्क्षण ही संपन्न हो जाती है ।

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