उधर उर्वशी व्यस्त हुई है
-गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
परिवर्तन ऐसा आया है, रहन सहन सब भव्य हो गए।
भोलापन हो गया नदारद, कहने को हम सभ्य हो गए।।
नर-नारी में होड़ लगी है, किससे आगे कौन रहेगा।
कोई नहीं बताने वाला, अपने घर की कौन कहेगा।।
परिधि पार कर चुकी लाज की, नारी की गर्दन ऊँची है।
नर का नाम शिखर पर टंकित, लेकिन नाक हुई नीची है।।
जब पड़ोस की बहन बेटियाँ, गर्ल फ्रैंड बन रहीं खुशी से।
बाॅय फ्रैंड की लगी लाॅटरी, खबर मिल रही गली-गली से।।
ब्रह्मचर्य पालन से पहले, ताक रहे हैं संसारी से।
कामाचार्य किशोर बन गए, वात्स्यायन के अवतारी से।।
लिए वासना भरी जवानी, भटक रही प्यासी की प्यासी।
नर, नारी का दास हो गया, नारी, नर की भोग प्रिया सी।।
बिकने लगी देह बस्ती में, बाजारू हो रहा जमाना।
कुत्सित काम वासना खुलकर, पुण्य प्रेम का बनी बहाना।।
अंग प्रदर्शन करते-करते, देवी खुद बन गई अप्सरा।
आज किसी की भोग वस्तु है, कल भोगेगा और दूसरा।।
सात जनम तक साथ निभाने, की कसमें हो गई पुरानी।
बदल-बदल कर भोग उठे सुख, नई रात की नई कहानी।।
रूप मण्डियों की रौनक में, रंग रँगीली सौगातें हैं।
देह-देह पर मोल लिखे हैं, कहने को लाखों बातें हैं।।
अन्धी सी हो गई जवानी, इंजन से दिल धड़क रहे हैं।
धधक रही कामाग्नि देह में, मछली जैसे तड़प रहे हैं।
नंगी नाच रही फूहड़ता, सिखा रही है काम कला सी।
लील गई सौम्यता लालसा, जीवन को कर दिया विलासी।।
लज्जा शील चरित्र आचरण, की मर्यादा ध्वस्त हुई है।
सीना ताने खड़ी सभ्यता, शेष संस्कृति पस्त हुई है।।
मादकता खिलखिला उठी है, मस्ती में मद मस्त हुई है।
इधर उरवशा लस्त पस्त है, उधर उर्वशी व्यस्त हुई है।।
जिस कन्या के लिए पिता क्या, पुरखों तक ने पाँव पखारे।
आज वही निर्वसना होकर, बोल्ड बन गयी छोड़ सहारे।।
सास ससुर की आश मर गई, माता-पिता हुए दुखियारे।
कहाँ सात फेरों के झंझट, सपने तक रह गए कुँआरे।।
जो न कभी देखे थे वे सब, दृश्य आज द्रष्टव्य हो गए।
आँखों से बस रहो देखते, हम सब के मन्तव्य हो गए।।
लिव इन की पोषक सत्ता के, कानूनी वक्तव्य हो गए।
नए जवानों से क्या बोलूँ, बूढ़े किंकर्तव्य हो गए।।