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आत्मसाक्षात्कारी व्यक्तियों की बुद्धि तीव्र व श्रेष्ठ हो जाती है

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सहजयोग श्री माताजी निर्मला देवी जी द्वारा प्रतिस्थापित एक जीवंत वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसका आधार कुंडलिनी जागरण तथा ध्यान की सनातन संस्कृति है। श्री माताजी द्वारा इसे स्वयं अपनी पुस्तक सहजयोग में इस प्रकार वर्णित किया गया, कुण्डलिनी जब उठती है तो व्यक्ति अपने सिर के तालू भाग में सहज ही, शीतल लहरियों के बहाव को अनुभव कर सकता है। स्वयं ही मनुष्य को अनुभव करना होता है और स्वयं ही प्रमाणित करना होता है। इन शीतल लहरियों को व्यक्ति अपने चहुं ओर भी अनुभव कर सकता है। परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापक शक्ति द्वारा ही यह शीतल हवा प्रकट की गई है। जीवन में पहली बार मनुष्य इस सूक्ष्म दैवी शक्ति के अनुभव का – वास्तवीकरण का परिचय प्राप्त करता है। परंतु सर्व साधारण भाषा में हम कह सकते हैं कि अभी सम्बन्ध स्थापित नहीं हुआ। इसे स्थापित करना है, पर माली को अब इस कोमल पौधे की देखभाल करनी होगी। इसी प्रकार साधक को आरम्भ में अपने आत्म साक्षात्कार को संभालना होता है। कुछ लोग अत्यंत आसानी से गहनता पा लेते हैं, पर कुछ छ: सात महीने करने पर भी पूरी तरह ठीक नहीं होते। ऐसी अवस्था में आवश्यक है कि सहज योग की ज्ञान विधियों तथा इनके अभ्यास द्वारा व्यक्ति यह जान ले कि समस्या कहां पर हैं।


इस प्रकार मनुष्य गुलामी की जंजीरों से स्वतंत्र हो जाता है। इसके बाद किसी गुरु द्वारा मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं रह जाती। सहायता के लिए अंधेरे में न टटोलता हुआ, व्यक्ति अब अपना स्वामी, अपना गुरु बन जाता है। मनुष्य पूर्णतया स्वतंत्र हो जाता है। सहज योगी को कोई न तो भयभीत कर सकता है और न ही चालाकी से प्रभावित सहज योग में लोग बहुत से सम्प्रदायों, धर्मों, संस्थाओं तथा विचारधाराओं से आते हैं पर सब पूर्व- बन्धन मुक्त हो जाते हैं। सहज योग में साक्षात्कार पाने के बाद व्यक्ति को कोई भी बंधन में नहीं फंसा सकता।
यह स्वतंत्रता अति सुन्दर है। शनैः शनैः व्यक्ति पक्षी की तरह स्वयं ही उड़ना सीख लेता है और जब तक मनुष्य इसमें पारंगत नहीं हो जाता और ईश्वरत्व के विषय में सब कुछ जान नहीं लेता वह उड़ता ही रहता है।


सहज योग में आने के बाद, दूसरे लोगों की तुलना में, व्यक्तित्व इतना निखरता है और विवेक बुद्धि इतनी तीव्र तथा श्रेष्ठ हो जाती है कि दूरदर्शन उद्यमी झूठे गुरु, पथभ्रष्ट करने वाली आधुनिक विधियां, कुछ भी आपके उद्यमी, मस्तिष्क को धर्मपथ से भटका नहीं सकता।…..एक सहज योगी अपनी तथा अन्य सहज योगियों की स्वतंत्रता का आनन्द लेता है। अपनी शक्तियों से वह परिचित है तथा स्वयं का उसे ज्ञान है। एक स्वतंत्र, शक्तिशाली संत बनकर वह देवतुल्य जीवन व्यतीत करता है

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