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संतोष ही वास्तविक आनंद का आधार है

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आधुनिक एवं तथाकथित विकसित समाज की एक प्रमुख पहचान है असीमित कामनाएं। जिसने तनाव व निराशा जैसी आधुनिक बीमारियों को जन्म दिया है, जिनका स्थाई समाधान चिकित्सा शास्त्र के पास भी नहीं है। इसका मूल कारण है हम सभी के भीतर असंतुष्टि का भाव, उपभोक्तावाद व चयन की स्वतंत्रता ने इंसान को भौतिकता का दास बना दिया है और वह भूल गया है कि वास्तविक आनंद भौतिक पदार्थों में नहीं वरन् संतुष्टि में है। यदि आपके भीतर संतोष है तो आप कम साधनों में भी आनंद की प्राप्ति कर सकते हैं अन्यथा राजसी वैभव भी सदैव कम ही लगता है। हमारे यहां एक कहावत सदा से प्रचलित है –
गोधन, गज-धन, बाजि-धन और रतन धन खान,
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान।

यह संतोष धन मनुष्य तभी प्राप्त कर सकता है जब उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जो पूर्व में अत्यंत कठिन मार्ग था परंतु श्री माताजी ने सहजयोग द्वारा इसे अत्यंत ही सुगम बना दिया है।
श्री माताजी ने स्वयं अमृत वचनों द्वारा हमें निर्देशित किया है कि,
“सहजयोग के बाद मनुष्य उस दशा तक पहुँच सकता है । इस थोड़े से समय में पहुँच सकता है जिसके लिये बड़े बड़े ऋषि-मुनियों को हज़ारों जन्म लेने पड़े और हज़ारों वर्षों की, युगों की, तप और साधना करनी पड़ी। हम लोगों के परम भाग्य हैं कि हम सब लोग इस विशेष युग में पैदा हुये हैं। सामान्य ही लोग हैं, जो असामान्य कार्य के लिये पैदा हुये हैं। सहजयोग में सबसे पहली बात है कि अन्दर में भोलापन होना चाहिये और शान्ति करो । शांति, संतोष, संतोष करो।…………. क्यूंकि वो समय आ गया है जब परमेश्वर का राज्य इस संसार में आने वाला है । संतोष रखो।सहजयोगियों को चाहिए कि और लोगों से ज्यादा शांतिपूर्ण रहे। संतोष से भरे रहे, खिले रहें और अपने आनन्द से इस सारे संसार को भरते रहें। अन्दर का चमत्कार सहजयोग दिखायेगा।”

असंतोष हमारे तीसरे केंद्र नाभि चक्र पर आक्रमण करता है तथा बाएं भाग, पेट व स्प्लीन(spleen) के क्षेत्र को प्रभावित करता है। जिससे तनाव बढ़ता है व अनेक प्रकार की समस्याएं जैसे कि पाचन संबंधी समस्याएं, अनिद्रा, मानसिक घबराहट व निराशा आदि की उत्पत्ति होती है। स्थिर बायीं नाड़ी व संतुलित नाभि चक्र आंतरिक संतोष प्रदान करता है। अपने चक्रों को समझने व इनमें संतुलन व सामंजस्य बनाने हेतु श्री माताजी की कृपा में आत्मसाक्षात्कार व सहजयोग ध्यान एक सुगम मार्ग है।

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