अदब की महफ़िल : खूबसूरत शायरी का आगाज़ करती शाम
संजय एम.तराणेकर
इंदौर, लगभग डेढ़ घंटा देरी से प्रारम्भ हुई “अदब की महफ़िल” का साढ़े 6 बजे आगाज़ हुआ. अक्सर ऐसी महफिलों में नए नवेले शायरों को अवसर देकर नवाज़ा जाता हैं. उसका सबसे बड़ा कारण मुशायरा सुनने आए श्रोतागण आख़री तक अपनी कुर्सीयों पर बैठे रहें. इस महफ़िल के साक्षी रहें ज़नाब संजय एम.तराणेकर ने बताया सर्वप्रथम माइक सँभालते ही पारसजी ने पेड़ लगाने और पानी की उपलब्धता व वाटर लेवल नीचे जाने को लेकर जागरूकता पर प्रकाश डाला. चूकि अदब की महफ़िल का संचालक मंडल ही लम्बा-चौड़ा हैं तो हेमंत गट्टानी जी ने स्वागत सम्मान की कमान अपने हाथों रखी. अंत में वे थोड़ा नाराज़ भी हुए. वे भी शेरों शायरी करते रहें.
महफ़िल की शुरुआत की मुंबई से पधारे अश्विन मित्तल ने की. वे बड़े जोश में सुनाते हैं –
“सारे इक्के खड़े हैं शर्मिंदा बाजी जीती गई है जोकर से जो कुल्हाड़ी का साथ देती हो उसको लकड़ी नहीं समझता मैं लेनदार आ गए हैं घर के अंदर तक पैर बाहर हो गए थे मेरे चादर से” वे अंत में कहते है – “ज़बान और करम दोनों का धनी हूँ मैं, ज़बान और करम दोनों का धनी हूँ मैं, कि उर्दू बोलने वाला सनातनी हूँ मैं…” इस तरह उन्होंने आते ही दिल जीत लिया और ऐसे कलाम पेश किए कि लोगों ने खड़े होकर उनका इस्तक़बाल किया और खूब तालियां बजाई।
लुधियाना के मुकेश आलम ने भी समां बाँधने का इज़हार किया. “रात ठहाके मार रही थी, अंधेरे को साथ लिए इतने में एक जुगनू निकला, तेरी ऐसी तैसी रात,अफवाहों को उड़ने की आजादी है सच को रुकते-रुकते जाना पड़ता है.”
आगे तीसरा नंबर था गाजियाबाद आईं इकरा अंबर का जो मूल रूप से इंदौर की रह चुकी हैं. वे फरमाती हैं –
- जान बन के तुम्हें राम पुकारा है बहुत मैंने वनवास में भी हिज्र गुजारा है बहुत जिस तरह शर्त वह लगाता है जिंदगी अपनी हार बैठेगा.”
यहाँ तक आते आते श्रोताओं की वाहवाही और फरमाइशों का दौर चल चुका था. जिससे इस बात का भी पता चला की शायरों से वे वाकिफ़ हैं. सुंदर मालेगांवी ने स्वयं के काले होने पर भी शायरी की. असल में उन्होंने शायरी कम वरन स्टैंडअप कॉमेडियन का ज़बरदस्त रोल अदा किया। उनकी खासियत ये रही कि उन्होंने लतीफे, राग, जुमले और गीतों से महफिल अपने नाम कर लीं. जिसे लोगों ने काफी पसंद किया। इसके बाद युवा शायर जुबैर अली कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए नज़ीर पेश कि – “अपने क़तरों से मुझे मुकद्दस कर दो, गंगा की तरह छूकर बनारस कर दो.”
अब आगे बारी थी अबूधाबी (संयुक्त अरब अमीरात) से आए मुख्य शायर सैयद सरोश आसिफ की। अदबी की मिठास लिए उनके शेर बड़ी संजीदगी से सुने गए- “मैं खुद अपनी गजलें अक्सर पढ़ता हूं. हैरानी से कैसे-कैसे शेर पढ़ देता हूं आसानी से शेर में वह तस्वीर बनाई जा सकती है जो अंधों को भी दिखलाई जा सकती है. बातों बातों में अम्मी ने फिर पूछा है बेटा क्या छुट्टी बढ़वाई जा सकती है.”
इसके बाद ग्वालियर के मदन मोहन दानिश ज़ब सुनाने लगे तो वंस मोर की आवाज़े गूंजने लगी। हालांकि वे एक ही लाइन को तीन बार रिपीट करते रहें. बावज़ूद इसके श्रोता दाद देते गए. दानिश साहब फरमाते हैं – “हमें पता है कि मसरूफ हो बहुत फिर भी हमारी दस्तकें सुनते रहो जमीर हैं हम खामोशी को मेरी दुआ समझो और जो बोल दूं हुआ समझो.”
अब बारी थी निजामत कर रहे अमरावती से आए अबरार काशिफ की. इनका फोकस इश्क पर था. इनकी खूबी ये रहीं की एक ही सांस में एक बड़ी नज़्म पढ़ दी. जिसे खूब दाद मिली. इनकी आवाज़ में वो जादूगरी नज़र आई की हर कोई इनका प्रशंसक बना गया. वे कहते हैं -“हवस को दूर रखो इश्क की निगाहों से इस शराब में पानी नहीं मिलाते हैं आंखों के पैमाने छलके होते है.”
महफ़िल की अंतिम कड़ी में नोएडा के नौमान शौक की ख़ासियत संजीदा और गहरे शेर कहने की रहीं है। उन्होंने अपनी शायरी को एक जर्क करार दिया, जिसे बर्दाश्त करने की गुजारिश करते हुए भरपूर शेर सुनाए।
“मैंने सामने सफर बांध के फिर जमीर जाग रहा हो तो नींद क्या आए यह शोर वह सुने जिसको सुनाई दे.”
इंदौर के लाभ मंडपम में शहर की संस्था ‘अदब की महफिल’ की 11वीं सालगिरह पर हुए इस मुशायरे को लोग लंबे अर्से तक याद रखेंगे। 9 शायरों ने बरबस ही जो समां बांधना प्रारम्भ किया तो श्रोतागण गोते लगाते चले गए. इस पर समीक्षा करने बैठे संजय एम. तराणेकर ने अर्ज़ किया हैं –
“वक़्त तुम ख़ुद को भी दिया करों,
यारों ऐसी महफ़िलें सज़ती हैं कम
कभी अदब की महफ़िल में आकर,
ज़ुबा के ज़ाम थोड़े-थोड़े पिया करों.”